Monday, October 17, 2011

दिल उदास क्यूं है?

कभी कभी कुछ आरजू पूरी नहीं होती,
मांगते है दुआ पर कबूल नहीं होती,
रास्ते हैं छोटे, पर पाँव थक जाते है चलते चलते,
मंजिलों की तलाश कभी पूरी नहीं होती।

चाहा था लिखूं जीवन की कहानी कलम से अपनी,
घिसते रहे हम, पर रहा कोरा वो अब भी,
इन कागजो पर स्याही अपने निशान नहीं छोडती,
स्याह जिंदगी हर किसी की रोशन नहीं होती।

नहीं है ताकत अब और आगे चलने की,
नहीं है हिम्मत अब और पग धरने की,
काली है रात, क्यों सुबह नहीं होती?
आशा और उम्मीद अभी भी क्यों नहीं सोती?
क्या कल था, क्या आज है, हैं खाली हाथ,
कुछ हाथों की रेखाओं की किस्मत नहीं होती।

डूबती नाव पे सवार हो हम समुन्दर से टकराने चले,
कडकडाती बिजलियों में हम सीना तान चले,
जानते थे कि डूब जायेगी ये नाव जिन्दगी के इस तूफ़ान में,
जज्बातों की जिद में हम, हाथों से छेद नाव के थाम चले।

Wednesday, October 5, 2011

कोचिंग और आई आई टी

IIT and Other Institutes

नारायण मूर्ति जो कि इंफ़ोसिस के संस्थापक भी रहे है और आई आई टी के छात्र भी रहे है, अब उनका मानना है कि इस इंस्टीट्यूट के छात्रों का स्तर गिरता जा रहा है और कमजोर छात्र इसमें प्रवेश कर रहे है जो कि कोचिंग पढकर प्रवेश परीक्षा पास करते है। लेकिन चेतन भगत ने जो बात कही है उसका जबाव शायद ही मूर्ति दे पाये। छात्रों को दोष देकर कोई भी शिक्षा संस्थान अपने शिक्षकों की नाकाबिलियत को नही छिपा सकता। सिक्के का एक पहलू ही देख कर आप केवल छात्रों को इस गिरावट का जिम्मेदार मानेंगे तो आप शुतुर्मुगी रवैया अपनायेगे, दूसरा पहलू उस शिक्षक के दोष को भी उजागर करता है कि क्या अब वो इतने काबिल नहीं रह गये है जो किसी कमजोर छात्र का स्तर न उठा सके?

किसी शिक्षण संस्थान को पहले ही पकी पकाई खीर मिले तो हम उसके शिक्षको की मेहनत के स्तर को कभी भी सही रूप में नहीं जान पायेगे लेकिन असली शिक्षक तो वो होता है जो किसी कच्चे घडे को सही आकार में ढाले। इसका मतलब ये है कि यहाँ के शिक्षकों मे इतनी काबिलियत ही नहीं है कि वो किसी छात्र को काबिल बना सके। दुनिया के उच्च 500 कालेजों मे भी आई आई टी शामिल नहीं है लेकिन घमंड तो ऐसा दिखा रहे है जैसे हर साल विज्ञान मे नये नये आबिष्कारों मे ये शामिल हो। असाईनमेंट और प्रोजेक्ट का बोझ तो छात्रो पर ऐसा लाद दिया जाता है कि ऐसा लगता है कि जो शिक्षक खुद कभी न कर पाये वो छात्रो से करवा लेंगे जैसे कि एक ही दिन में सब छात्रों को नोबल पुरस्कार के काबिल बना देंगे। आत्महत्या की स्थिति भी क्यों आ जाती है जबकि हर बच्चे का सपना आई आई टी जाने का होता है? अपने सपनो की यथार्थता समझ में आते ही उनके सपने चकनाचूर हो जाते है। यहाँ के शिक्षक खुद मेहनत न करके छात्रों से अपने हिस्से की मेहनत करवाते है जिसके कारण एक औसत छात्र उस दबाव को झेल नहीं पाता है। इसके अलावा कोई माने या न माने पर यह एक सच्चाई है कि जातीय भेदभाव का शिकार भी ये बच्चे यहाँ शिक्षकों के हाथों होते है। वो इस आरक्षित सीट से चुनकर आने वाले बच्चे को इस संस्थान की गिरावट का मुख्य कारण मान बैठते है और अनजाने ही उसको टार्चर करने लगते है। उसको बात बात पर ताने तो उसके साथी छात्र तो मारते ही है पर वो इतना बुरा नही लगता क्योकि दोस्ती में इतना चलता है लेकिन शिक्षक द्वारा कम नम्बर देना तथा पहले से ही छात्र के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होना वो छात्र झेल नहीं पाता और वो या तो डिप्रेशन में चला जाता है और या तो आत्महत्या का विकल्प चुनता है।

क्या आई आई टी में पढनें वाला हर बच्चा होशियार होता है बाकी किसी संस्थान के नहीं? ये सोच ही गलत है। 121 करोड की जनसंख्या में कितने बच्चे आई आई टी में प्रवेश ले पायेगे? जो प्रवेश नहीं ले पाते वो मजबूरी में दूसरे संस्थानो में प्रवेश लेते है और जब आई आई टी के छात्रो से मुकाबले की बात आती है तो ग़ेट (GATE), केट (CAT), सिविल सर्विस (IAS, PCS etc) परीक्षाओं मे टाप रैंक ये अन्य संस्थानों के छात्र आसानी से ले आते है और आई आई टी के प्रबंधकों को अहसास दिलाते है कि अभी भी तुम्हारे प्रबंधन में कुछ कमी बाकी है। हाँ ये बात नौकरियों के लिये ठीक है कि आई आई टी के छात्रो को वेतन अच्छा मिलता है तो उसका कारण वो बनी बनाई एक मारीचिका है जिसके अनुसार ये माना जाता है कि इस ब्राँड के सारे प्रोडक्ट अच्छे होते है। कम्पनिया आंख बन्द करके यहाँ के छात्रो को नौकरी दे देती है जबकि अन्य संस्थानों के छात्र भटकते भटकते कहीं दिल्ली के जिया सराय में अपना आशियाना बनाते हैं और कोचिंग करते है तो कहीं बंगलौर की आई टी कम्पनियों के वाक इन देते देते अपने जूते घिसते मिल जाते है।

मूर्ति का ये मानना है कि कोचिंग के कारण ये बेकार छात्र आई आई टी में प्रवेश पाते है तो इसमें गलती किसकी है? कोई ये बताये आखिर आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में ऐसे प्रश्न पूछे ही क्यों जाते है जो 12 स्टैंडर्ड से कफ़ी कठिन होते है, अगर कोचिंग नहीं करेगा तो केवल 12 पास करके वो कभी भी आई आई टी के 4-5 प्रश्नों को भी नहीं हिला पायेगा। खुद मूर्ति भी बिना कोचिंग के अब आई आई टी दुबारा पास नही कर सकते। एक तो उस बच्चे ने कोचिंग पढ कर अपना स्तर ऊचां किया तथा नया ज्ञान हासिल किया तो मूर्ति को उसमें भी प्रोब्लेम है? ये कोई गेम तो है नहीं जिसमें कहा जाये कि तुमने बेईमानी की है क्योकि तुम कोचिंग पढकर आये हो, बिना कोचिंग के सिलेक्ट होकर दिखाओ तो जानू……। 

ये साफ़ साफ़ अहंकार का मामला दिखता है जिसमें बच्चे की बौद्धिक क्षमता को नजर अंदाज कर केवल कंक्रीट की कुछ बिल्डिंगों की चिंता की जा रही है।

Monday, August 15, 2011

कम्पूटर गेम किस तरह बनाये?

हम सभी लोग अपने अपने कम्प्यूटर में कोई न कोई गेम जरूर खेलते है, लेकिन क्या ये जानने की इच्छा कभी नही हुयी कि ये खेल आखिर बनते कैसे है?
अगर आप कम्प्यूटर गेम बनाना चाहते है तो आपको-
1- रचनाशील होना पडेगा।
2- कहानी की कडी दर कडी जोडनी आनी चाहिये।
3- फ़ोटोशाँप, आटोकैड माया, 3डी मैक्स पर कार्य करना आना चाहिये, अगर नहीं आता है तो थोडी मेहनत से ही आप आसानी से सीख सकते है, आनलाईन आप यू-ट्यूब और अन्य कुछ फ़ोरम से ये फ़्री में आसानी से सीख सकते है।
4- एक साफ़्ट्वेयर यूनिटी 3डी को आप डाउनलोड कर ले।

कम्प्यूटर गेम बनाने की विधि-
1- सर्वप्रथम आप एक कहानी बनाये जिसमें एक नायक/नायिका हो, खलनायक हो, कुछ बाधाये हो। अगर आप एक एक्शन गेम बनाना चाहते है तो इस तरह की कहानी एक कागज पर लिख ले।
2- कहानी को सीन मे बाँटें, जिसमें प्लेयर को करने वाले कार्य तथा लक्ष्य को लिख ले।
3- माया या 3डी मैक्स साफ़्ट्वेयर पर जाकर अपने खिलाडियों की 3डी चित्र को बनाये, अच्छा होगा कि पहले एक कागज पर, सभी पात्र, सीन(मैदान, पहाड, पेड, यान इत्यादि) बना ले।
4- अलग अलग फ़ोल्डर में खिलाडी(हीरो, विलेन)  तथा सीन को रक्खें।
5- यूनिटी 3डी में जाकर सीन को खोले और उस पर अपने खिलाडी को सेट करे।
6- जावा स्क्रिप्ट की सहायता से खिलाडी के हाव भाव को सेट करे अन्यथा आप केवल एक एनिमेशन ही बना पायेगे कोई गेम नहीं।
7- यूनिटी 3डी आपको खुद गेम बनाने में बहुत मदद करेगा। फ़िर उसको बना कर अपने कम्प्यूटर में खेल कर चेक करे और फ़िर मार्केट में आनलाईन बेंचे।

Wednesday, June 8, 2011

देह


स्त्री और पुरुष, देह दोनो के पास है, लेकिन पुरुषों के लिये नियम, कायदे कानून कभी नहीं बनायें गये हाँ पर स्त्री की देह को कायदे कानून से भर दिया गया। गौरतलब बात ये है कि स्त्रियों को बन्धनों में जकडने वाला कोई स्त्री नहीं बल्कि पुरुष ही हैं। कभी हलवाई की दुकान मे चले जाइये, अपने खुले बडे बडे स्तनों की नुमाइश करते हलवाई को देखकर किसी स्त्री ने कभी नहीं कहा की पूरे कपडे पहन कर हलवाईगिरी किया करो, कभी किसी भारतीय संस्कृति के ठेकेदार ने आपत्ति नहीं की कि ये हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है। जब कोई स्त्री समानता के सिद्धांत के अनुसार अपने देह को थोडे कम कपडों मे लाती है तो सबसे पहले आपत्ति कोई महिला नहीं बल्कि पुरुष करता है। ये बिल्कुल गैर समझदारी है, अभी भारतीय पुरुष परिपक्व नहीं हुआ है, इतना पढने-लिखने के बावजूद वो अगर ये कहता है कि स्त्री देह ढकने के लिये होती है तो यही अर्थ निकलता है कि अभी भी वो बच्चा है।
रही बात टोपलैस होने की, तो वक्षों को इतना बडा मुद्दा कभी बनना ही नहीं चाहिये था, एक माँ अपने बच्चों को दुग्धपान कराती है इनसे, यानी जन्म के वक़्त से ही जो मनुष्य इनसे जीवन पा रहा है, बडे होने पर ऐसा क्या हो जाता है कि वही मनुष्य इसे अश्लीलता का पैमाना मानने लगता है? स्त्रियों को खुद आगें आना होगा और समाज की परवाह न कर पुरुषों के समान वक्षों को खुला रखने की नयी सोच को सींचना होगा तभी इस समाज मे वक्ष आम अंग बन पायेगा। आदिवासी जो नग्न अवस्था में रहते है उनमें कभी बलात्कार की घटनायें नहीं होती क्योकिं जब उनके अंग एक दूसरे के सामने खुले हुये है तो बासना किस अंग के दिख जाने से पैदा होगी। कपडों के कारण ही पुरुषों की स्त्री अंगो को देखने की कुंठा हमेशा मन मे बनी रहती है, जब कपडे ही ना होंगे तो कुंठा किस बात की बाकी रहेगी।
विकसित देश अपनी खुली सोच के कारण ही विकसित है, वहाँ भी स्त्रियों को वहाँ के पुरुषों से समानता के लिये संघर्ष करना पडा तब कहीं जाकर वहाँ की स्त्री अपने पसन्द के कपडे पहन सकी है। भारत मे शुरुआत होनी अभी बाकी है।

Tuesday, June 7, 2011

बाबा रामदेव और अन्ना और कांग्रेस

रामलीला मैदान में रात को सोते लोगो को जिसमे बूढ़े, बच्चे, महिलाये और जवान पुरुष बाबा रामदेव के साथ एकजुट होकर भारत के बढते भ्रष्टचार से लड़ने के लिए गाँधीवादी तरीके से सत्याग्रह कर रहे थे, उन पैर पुलिस द्वारा लाठिया,आसू गैस के गोले चलाना वो भी निहत्थे लोगो पर, इसे बर्बरता नहीं तो और क्या कहेगे?
मेरे ख्याल से कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी थी जिसको हर धर्म और जाति के लोग पसंद करते थे लेकिन जब सत्ता ज्यादा दिनों तक किसी के हाथो में आ जाती है तो धीरे धीरे वो आम लोगो की परवाह छोड़ कर मनमानी और निरंकुशता की ओर बढने लगती है। अब मुझे कांग्रेस पार्टी से नफरत हो गयी है। ये हर उस इंसान को बचाने की कोशिश कर रही है जो भ्रष्टाचार का दोषी साबित हो रहा है।
राहुल गाँधी से कुछ उम्मीद की किरण नज़र आई थी लेकिन अन्ना और रामदेव की घटनाओ में उनकी सक्रियता नज़र नहीं आई? कहा हो राहुल भाई? दिख क्यों नहीं रहे हो? क्या कांग्रेस में केवल कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह और कुछ मुट्ठी भर लोग ही रह गए है जिन्होंने अन्ना के खिलाफ वयान दे दे कर जनता को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा कर दिया है, अब ये तो जगजाहिर बात है की एक सशक्त लोकपाल की सहायता से ही हम भ्रष्टाचार को थोडा काबू में तो कर ही सकते है जैसा की पश्चिमी देशो के यहाँ पाया जाता है, लेकिन जो इसके खिलाफ जायेगा, उस से यही सन्देश जायेगा की वो भ्रष्टाचार को नहीं मिटाना चाहता है। २-जी स्पैक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, एस-बैंड घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, अन्ना के खिलाफ वयान बाजी, रामदेव के ऊपर पुलिस कारवाई, और फिर भारत देश की समस्त जनता के गुस्से को अनदेखा कर अपनी सत्ता के मद में चूर होकर शुतुरमुर्गी रवैया अपनाने से लग रहा है की इस पार्टी का अंत समय निकट आ गया है, अब जो ये सत्ता से बाहर जाएगी तो, एक दशक से पहले इसका इलाज संभव नहीं दिखता।

अन्ना और रामदेव में से मई अन्ना के ज्यादा करीब हू लेकिन अब जो बाबा रामदेव के साथ हुआ है उसे मै कतई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हू, संविधान की धज्जिया उड़ा दी गयी है। संविधान सभा में यही पार्टी थी जिसने एक नए भारत की बुनियाद रक्खी थी, सच में आज महात्मा गाँधी होते तो रो पड़ते। भारत की जनता के मौलिक अधिकारों को कोई नहीं छीन सकता ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था लेकिन अपने मजे के लिए आम जनता के प्रदत्त अधिकारों को कुचला जा रहा है, ये पार्टी गयी, अब नहीं बचेगी।

ना सोनिया गाँधी, ना राहुल गाँधी, ना चिदंबरम जैसे समझदार नेता कुछ बोल रहे है तो उनकी नीयत पर शक होता है, कपिल सिब्बल को इतनी छूट नहीं देनी चाहिए थी, दिग्विजय को पार्टी से तुरंत बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए था, लेकिन ऐसे बेवकूफ लोगो के कारण लगता है की अब इस कांग्रेस में बेवकूफों का बोलवाला है।