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Wednesday, June 8, 2011

देह


स्त्री और पुरुष, देह दोनो के पास है, लेकिन पुरुषों के लिये नियम, कायदे कानून कभी नहीं बनायें गये हाँ पर स्त्री की देह को कायदे कानून से भर दिया गया। गौरतलब बात ये है कि स्त्रियों को बन्धनों में जकडने वाला कोई स्त्री नहीं बल्कि पुरुष ही हैं। कभी हलवाई की दुकान मे चले जाइये, अपने खुले बडे बडे स्तनों की नुमाइश करते हलवाई को देखकर किसी स्त्री ने कभी नहीं कहा की पूरे कपडे पहन कर हलवाईगिरी किया करो, कभी किसी भारतीय संस्कृति के ठेकेदार ने आपत्ति नहीं की कि ये हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है। जब कोई स्त्री समानता के सिद्धांत के अनुसार अपने देह को थोडे कम कपडों मे लाती है तो सबसे पहले आपत्ति कोई महिला नहीं बल्कि पुरुष करता है। ये बिल्कुल गैर समझदारी है, अभी भारतीय पुरुष परिपक्व नहीं हुआ है, इतना पढने-लिखने के बावजूद वो अगर ये कहता है कि स्त्री देह ढकने के लिये होती है तो यही अर्थ निकलता है कि अभी भी वो बच्चा है।
रही बात टोपलैस होने की, तो वक्षों को इतना बडा मुद्दा कभी बनना ही नहीं चाहिये था, एक माँ अपने बच्चों को दुग्धपान कराती है इनसे, यानी जन्म के वक़्त से ही जो मनुष्य इनसे जीवन पा रहा है, बडे होने पर ऐसा क्या हो जाता है कि वही मनुष्य इसे अश्लीलता का पैमाना मानने लगता है? स्त्रियों को खुद आगें आना होगा और समाज की परवाह न कर पुरुषों के समान वक्षों को खुला रखने की नयी सोच को सींचना होगा तभी इस समाज मे वक्ष आम अंग बन पायेगा। आदिवासी जो नग्न अवस्था में रहते है उनमें कभी बलात्कार की घटनायें नहीं होती क्योकिं जब उनके अंग एक दूसरे के सामने खुले हुये है तो बासना किस अंग के दिख जाने से पैदा होगी। कपडों के कारण ही पुरुषों की स्त्री अंगो को देखने की कुंठा हमेशा मन मे बनी रहती है, जब कपडे ही ना होंगे तो कुंठा किस बात की बाकी रहेगी।
विकसित देश अपनी खुली सोच के कारण ही विकसित है, वहाँ भी स्त्रियों को वहाँ के पुरुषों से समानता के लिये संघर्ष करना पडा तब कहीं जाकर वहाँ की स्त्री अपने पसन्द के कपडे पहन सकी है। भारत मे शुरुआत होनी अभी बाकी है।