IIT and Other Institutes
नारायण मूर्ति जो कि इंफ़ोसिस के संस्थापक भी रहे है और आई
आई टी के छात्र भी रहे है, अब उनका मानना है कि इस इंस्टीट्यूट के छात्रों का स्तर
गिरता जा रहा है और कमजोर छात्र इसमें प्रवेश कर रहे है जो कि कोचिंग पढकर प्रवेश परीक्षा
पास करते है। लेकिन चेतन भगत ने जो बात कही है उसका जबाव शायद ही मूर्ति दे पाये। छात्रों
को दोष देकर कोई भी शिक्षा संस्थान अपने शिक्षकों की नाकाबिलियत को नही छिपा सकता।
सिक्के का एक पहलू ही देख कर आप केवल छात्रों को इस गिरावट का जिम्मेदार मानेंगे तो
आप शुतुर्मुगी रवैया अपनायेगे, दूसरा पहलू उस शिक्षक के दोष को भी उजागर करता है कि
क्या अब वो इतने काबिल नहीं रह गये है जो किसी कमजोर छात्र का स्तर न उठा सके?
किसी शिक्षण संस्थान को पहले ही पकी पकाई खीर मिले तो हम
उसके शिक्षको की मेहनत के स्तर को कभी भी सही रूप में नहीं जान पायेगे लेकिन असली शिक्षक
तो वो होता है जो किसी कच्चे घडे को सही आकार में ढाले। इसका मतलब ये है कि यहाँ के
शिक्षकों मे इतनी काबिलियत ही नहीं है कि वो किसी छात्र को काबिल बना सके। दुनिया के
उच्च 500 कालेजों मे भी आई आई टी शामिल नहीं है लेकिन घमंड तो ऐसा दिखा रहे है जैसे
हर साल विज्ञान मे नये नये आबिष्कारों मे ये शामिल हो। असाईनमेंट और प्रोजेक्ट का बोझ
तो छात्रो पर ऐसा लाद दिया जाता है कि ऐसा लगता है कि जो शिक्षक खुद कभी न कर पाये
वो छात्रो से करवा लेंगे जैसे कि एक ही दिन में सब छात्रों को नोबल पुरस्कार के काबिल
बना देंगे। आत्महत्या की स्थिति भी क्यों आ जाती है जबकि हर बच्चे का सपना आई आई टी
जाने का होता है? अपने सपनो की यथार्थता समझ में आते ही उनके सपने चकनाचूर हो जाते
है। यहाँ के शिक्षक खुद मेहनत न करके छात्रों से अपने हिस्से की मेहनत करवाते है जिसके
कारण एक औसत छात्र उस दबाव को झेल नहीं पाता है। इसके अलावा कोई माने या न माने पर
यह एक सच्चाई है कि जातीय भेदभाव का शिकार भी ये बच्चे यहाँ शिक्षकों के हाथों होते
है। वो इस आरक्षित सीट से चुनकर आने वाले बच्चे को इस संस्थान की गिरावट का मुख्य कारण
मान बैठते है और अनजाने ही उसको टार्चर करने लगते है। उसको बात बात पर ताने तो उसके
साथी छात्र तो मारते ही है पर वो इतना बुरा नही लगता क्योकि दोस्ती में इतना चलता है
लेकिन शिक्षक द्वारा कम नम्बर देना तथा पहले से ही छात्र के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित
होना वो छात्र झेल नहीं पाता और वो या तो डिप्रेशन में चला जाता है और या तो आत्महत्या
का विकल्प चुनता है।
क्या आई आई टी में पढनें वाला हर बच्चा होशियार होता है बाकी
किसी संस्थान के नहीं? ये सोच ही गलत है। 121 करोड की जनसंख्या में कितने बच्चे आई
आई टी में प्रवेश ले पायेगे? जो प्रवेश नहीं ले पाते वो मजबूरी में दूसरे संस्थानो
में प्रवेश लेते है और जब आई आई टी के छात्रो से मुकाबले की बात आती है तो ग़ेट (GATE),
केट (CAT), सिविल सर्विस (IAS, PCS etc) परीक्षाओं मे टाप रैंक ये अन्य संस्थानों के
छात्र आसानी से ले आते है और आई आई टी के प्रबंधकों को अहसास दिलाते है कि अभी भी तुम्हारे
प्रबंधन में कुछ कमी बाकी है। हाँ ये बात नौकरियों के लिये ठीक है कि आई आई टी के छात्रो
को वेतन अच्छा मिलता है तो उसका कारण वो बनी बनाई एक मारीचिका है जिसके अनुसार ये माना
जाता है कि इस ब्राँड के सारे प्रोडक्ट अच्छे होते है। कम्पनिया आंख बन्द करके यहाँ
के छात्रो को नौकरी दे देती है जबकि अन्य संस्थानों के छात्र भटकते भटकते कहीं दिल्ली
के जिया सराय में अपना आशियाना बनाते हैं और कोचिंग करते है तो कहीं बंगलौर की आई टी
कम्पनियों के वाक इन देते देते अपने जूते घिसते मिल जाते है।
मूर्ति का ये मानना है कि कोचिंग के कारण ये बेकार छात्र
आई आई टी में प्रवेश पाते है तो इसमें गलती किसकी है? कोई ये बताये आखिर आई आई टी की
प्रवेश परीक्षा में ऐसे प्रश्न पूछे ही क्यों जाते है जो 12 स्टैंडर्ड से कफ़ी कठिन
होते है, अगर कोचिंग नहीं करेगा तो केवल 12 पास करके वो कभी भी आई आई टी के 4-5 प्रश्नों
को भी नहीं हिला पायेगा। खुद मूर्ति भी बिना कोचिंग के अब आई आई टी दुबारा पास नही
कर सकते। एक तो उस बच्चे ने कोचिंग पढ कर अपना स्तर ऊचां किया तथा नया ज्ञान हासिल
किया तो मूर्ति को उसमें भी प्रोब्लेम है? ये कोई गेम तो है नहीं जिसमें कहा जाये कि
तुमने बेईमानी की है क्योकि तुम कोचिंग पढकर आये हो, बिना कोचिंग के सिलेक्ट होकर दिखाओ
तो जानू……।
ये साफ़ साफ़ अहंकार का मामला दिखता है जिसमें बच्चे की बौद्धिक क्षमता को
नजर अंदाज कर केवल कंक्रीट की कुछ बिल्डिंगों की चिंता की जा रही है।